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रविवार, 7 फ़रवरी 2021

Mysterious objects of ancient time | पौराणिक काल की दस दैवीय वस्तुओ का रहस्य

 Mysterious objects of ancient time | 

पौराणिक काल की दस दैवीय वस्तुओ का रहस्य 

विज्ञान और चमत्कारों के बीच कोई ना कोई बहस आए दिन चलती रहती है|  जिन चीजों को विज्ञान स्वीकारता है उसे चमत्कार का सिद्धांत नकार देता है और जिन्हें चमात्कार के सिद्धांत सिद्ध करते हैं विज्ञान उन्हें फिजूल करार दे देता है|  लेकिन आज हम जिन स्थानों का जिक्र यहां करने जा रहे हैं उसे अगर चमत्कार नहीं कहा जा सकता तो विज्ञान के पास भी इसका कोई जवाब नहीं है|  यहां ऐसा क्यों होता है, आखिर क्या कारण है इन गतिविधियों का, अभी तक वैज्ञानिक भी इसका जवाब नहीं ढूंढ़ पाए हैं| 
भारत देश को योग, ध्यान, अध्यात्म, रहस्य और चमत्कारों का देश माना जाता है। वेद, पुराण, रामायण और महाभारत में ऐसी हजारों घटनाक्रम और वस्तुओं के बारे में वर्णन मिलता है जिन पर आधुनिक युग में शोध जारी है। चमत्कार और विज्ञान की ऐसी-ऐसी अजीब बातें हैं जिनमें से कुछ की वैज्ञानिक पुष्‍टि होने के बाद उन पर अब सहज ही विश्वास किया जाने लगा है।
प्राचीनकाल में ऐसी वस्तुएं थीं जिनके बल पर देवता या मनुष्य असीम शक्ति और चमत्कारों से परिपूर्ण हो जाते थे। उन वस्तुओं के बगैर व्यक्ति खुद को असहाय मानता था। कहते हैं कि ऐसी वस्तुएं आज भी किसी स्थान विशेष पर सुरक्षित रखी हुई हैं।आओ जानते हैं उन्हीं में से 10 चमत्कारिक वस्तुओं के बारे में।हो सकता है कि आप ढूंढें या तपस्या करें तो आपको भी ये वस्तुएं मिल जाएं।

Mysterious objects of ancient time | पौराणिक काल की दस दैवीय वस्तुओ का रहस्य

 मुस्लिम मन्त्र तन्त्र यंत्र अमल की दुर्लभ पुस्तक
देवी देवता भुत प्रेत वीर बैताल जिन्न सिद्ध आत्मा  जो चाहो वो सिद्ध करके मनचाहा काम करवाओ  
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1-  कल्पवृक्ष : -  वेद और पुराणों में कल्पवृक्ष का उल्लेख मिलता है। कल्पवृक्ष स्वर्ग का एक विशेष वृक्ष है। पौराणिक धर्मग्रंथों और हिन्दू मान्यताओं के अनुसार यह माना जाता है कि इस वृक्ष के नीचे बैठकर व्यक्ति जो भी इच्छा करता है, वह पूर्ण हो जाती है।
पुराणों में इस वृक्ष के संबंध में कई तरह की कथाएं प्रचलित हैं। इसके अलावा कुछ विद्वान मानते हैं कि पारिजात के वृक्ष को ही कल्पवृक्ष कहा जाता है। पद्मपुराण के अनुसार पारिजात ही कल्पतरु है, जबकि कुछ का मानना है यह सही नहीं है। पुराण तो बहुत बाद में लिखे गए। दरअसल, कल्पवृक्ष को कल्पवृक्ष इसलिए कहा जाता है कि इसकी उम्र एक कल्प बताई गई है। एक कल्प 14 मन्वंतर का होता है और एक मन्वंतर लगभग 30,84,48,000 वर्ष का होता है। इसका मतलब कल्प वृक्ष प्रलयकाल में भी जिंदा रहता है।
पुराणों के अनुसार समुद्र मंथन के 14 रत्नों में से एक कल्पवृ‍क्ष की भी उत्पत्ति हुई थी। समुद्र मंथन से प्राप्त यह वृक्ष देवराज इन्द्र को दे दिया गया था और इन्द्र ने इसकी स्थापना 'सुरकानन वन' (हिमालय के उत्तर में) में कर दी थी। माना जाता है कि धरती के किसी न किसी कोने में आज भी कल्पवृक्ष कहीं न कहीं जरूर होगा। हो सकता है कि यह हिमालय के किसी दुर्गभ स्थान पर मिले।


2 - अक्षय पात्र : -  अक्सर यह चमत्कारिक अक्षय पात्र प्राचीन ऋषि-मुनियों के पास हुआ करता था। अक्षय का अर्थ जिसका कभी क्षय या नाश न हो। दरअसल, एक ऐसा पात्र जिसमें से कभी भी अन्न और जल समाप्त नहीं होता। जब भी उसमें हाथ डालो तो खाने की मनचाही वस्तु निकाली जा सकती है।
महाभारत में अक्षय पात्र संबंधित एक कथा है। जब पांचों पांडव द्रौपदी के साथ 12 वर्षों के लिए जंगल में रहने चले गए थे, तब उनकी मुलाकात कई तरह के साधु-संतों से होती है। कुटिया बनाकर रहने के बाद उनके यहां भ्रमणशील साधु-संतों के जत्थे के जत्थे उनसे मिलने के लिए या कुटिया में प्रवास करने के लिए आते थे।
अब पांचों पांडवों सहित द्रौपदी के समक्ष यही प्रश्न होता था कि वे 6 प्राणी अकेले भोजन कैसे करें और उन सैकड़ों-हजारों के लिए भोजन कहां से आए?
तब पुरोहित धौम्य उन्हें सूर्य की 108 नामों के साथ आराधना करने के लिए कहते हैं। युधिष्ठिर इन नामों का बड़ी आस्था के साथ जाप करते हैं। अंत में भगवान सूर्य प्रसन्न होकर युधिष्ठिर के पास प्रकट होकर पूछते हैं कि इस पूजा-अर्चना का आशय क्या है?
युधिष्ठिर कहते हैं कि हे प्रभु! मैं हजारों लोगों को भोजन कराने में असमर्थ हूं। मैं आपसे अन्न की अपेक्षा रखता हूं। किस युक्ति से हजारों लोगों को खिलाया जाए, ऐसा कोई साधन मांगता हूं।
तब सूर्यदेव एक ताम्बे का पात्र देकर उन्हें कहते हैं- 'युधिष्ठिर! तुम्हारी कामना पूर्ण हो। मैं 12 वर्ष तक तुम्हें अन्नदान करूंगा। यह ताम्बे का बर्तन मैं तुम्हें देता हूं। तुम्हारे पास फल, फूल, शाक आदि  4 प्रकार की भोजन सामग्रियां तब तक अक्षय रहेंगी, जब तक कि द्रौपदी परोसती रहेगी।' ताम्बे का वह अक्षय पात्र लेकर युधिष्ठिर प्रसन्न हो जाते हैं। 
कथा के अनुसार द्रौपदी हजारों लोगों को परोसकर ही भोजन ग्रहण करती थी, जब तक वह भोजन ग्रहण नहीं करती, पात्र से भोजन समाप्त नहीं होता था। जनश्रुति के अनुसार इसी तरह का अक्षय पात्र आज भी हिमालय के साधुओं के पास है। यह पात्र सूर्य की साधना से ही प्राप्त होता है।

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3 - कर्ण के कवच-कुंडल : -  भगवान कृष्ण यह भली-भांति जानते थे कि जब तक सूर्य से प्राप्त कर्ण के पास उसका कवच और कुंडल है, तब तक उसे कोई नहीं मार सकता। ऐसे में अर्जुन की सुरक्षा की कोई गारंटी नहीं। उधर देवराज इन्द्र भी चिंतित थे, क्योंकि अर्जुन उनका पुत्र था।
तब कृष्ण ने देवराज इन्द्र को एक उपाय बताया और फिर देवराज इन्द्र एक ब्राह्मण के वेश में पहुंच गए कर्ण के द्वार। देवराज भी सभी के साथ लाइन में खड़े हो गए। कर्ण सभी को कुछ न कुछ दान देते जा रहे थे। बाद में जब देवराज का नंबर आया तो दानी कर्ण ने पूछा- विप्रवर, आज्ञा कीजिए! किस वस्तु की अभिलाषा लेकर आए हैं? 
विप्र बने इन्द्र ने कहा, हे महाराज! मैं बहुत दूर से आपकी प्रसिद्धि सुनकर आया हूं। कहते हैं कि आप जैसा दानी तो इस धरा पर दूसरा कोई नहीं है। तो मुझे आशा ही नहीं विश्‍वास है कि मेरी इच्छित वस्तु तो मुझे अवश्य आप देंगे ही।‍ फिर भी मन में कोई शंका न रहे इसलिए आप संकल्प कर लें तब ही मैं आपसे मांगूंगा अन्यथा आप कहें तो मैं खाली हाथ ही चला जाता हूं?
कर्ण ने तैश में आकर जल हाथ में लेकर कहा- हम प्रण करते हैं विप्रवर! अब तुरंत मांगिए। तब क्षद्म इन्द्र ने कहा- राजन! आपके शरीर के कवच और कुंडल हमें दानस्वरूप चाहिए। एक पल के लिए सन्नाटा छा गया। कर्ण ने इन्द्र की आंखों में झांका और फिर दानवीर कर्ण ने बिना एक क्षण भी गंवाए अपने कवच और कुंडल अपने शरीर से खंजर की सहायता से अलग किए और ब्राह्मण को सौंप दिए।
इन्द्र ने तुंरत वहां से दौड़ ही लगा दी और दूर खड़े रथ पर सवार होकर भाग गए। तभी आकाशवाणी हुई, 'देवराज इन्द्र, तुमने बड़ा पाप किया है। अपने पुत्र अर्जुन की जान बचाने के लिए तूने छलपूर्वक कर्ण की जान खतरे में डाल दी है। अब यह रथ यहीं धंसा रहेगा और तू भी यहीं धंस जाएगा।' 
बाद में इन्द्र से इससे बचने के लिए कर्ण को वज्ररूपी शक्ति दे दी और कहा कि तुम इस अमोघ वज्र को जिसके ऊपर भी चला दोगे, वो बच नहीं पाएगा। भले ही साक्षात काल के ऊपर ही चला देना, लेकिन इसका प्रयोग सिर्फ एक बार ही कर पाओगे।
कहते हैं कि वे कवच-कुंडल इन्द्र ने स्वर्ग में ले जाकर कहीं सुरक्षित रख दिए थे, जो आज भी कहीं पर रखे हुए हैं।


4- दिव्य धनुष और तरकश : -   दधीचि ऋषि ने देश के हित में अपनी हड्डियों का दान कर दिया था। उनकी हड्डियों से 3 धनुष बने- 1|  गांडीव, 2|  पिनाक और 3|  सारंग। इसके अलावा उनकी छाती की हड्डियों से इंद्र का वज्र बनाया गया। इन्द्र ने यह वज्र कर्ण को दे दिया था। 
पिनाक शिव के पास था जिसे रावण ने ले लिया था। रावण से यह परशुराम के पास चला गया। परशुराम ने इसे राजा जनक को दे दिया था। राजा जनक की सभा में श्रीराम ने इसे तोड़ दिया था। सारंग विष्णु के पास था। विष्णु से यह राम के पास गया और बाद में श्रीकृष्ण के पास आ गया था। गांडीव अग्निदेव के पास था जिसे अर्जुन ने ले लिया था।
पौराणिक कथाओं के अनुसार एक ऐसा धनुष, तीर और तरकश है जिसका कभी नाश नहीं हो सकता। यह तीर चलाने के बाद पुन: व्यक्ति के पास लौट आता है और तरकश में कभी तीर या बाण समाप्त नहीं होते। सबसे पहले ऐसा ही एक तीर राजा बलि के पास था।
भृगुवंशियों ने राजा बलि से विश्‍वजीत के लिए एक यज्ञ करवाया। उस यज्ञ से अग्निदेव प्रकट हुए और उन्होंने राजा बलि को सोने का दिव्य रक्ष, घोड़े एवं दिव्य धनुष तथा दो अक्षय तीर दिए। प्रहलाद ने कभी न मुरझाने वाली दिव्य माला दी और शुक्राचार्य ने दिव्य शंख दिया। इस प्रकार दिव्य अस्त्र-शस्त्रों से सुसज्जित होकर राजा बलि ने इंद्र को पराजित कर दिया था। राजा बलि इन दिव्य धनुष और बाण की बदौलत तीनों लोकों पर राज करने लगा था। 
उसी तरह की एक कथा है कि श्वैतकि के यज्ञ में निरंतर 12 वर्षों तक घृतपान करने के बाद अग्निदेव को तृप्ति के साथ-साथ अपच भी हो गया। तब वे ब्रह्मा के पास गए। ब्रह्मा ने कहा की यदि वे खांडव वन को जला देंगे तो वहां रहने वाले विभिन्न जंतुओं से तृप्त होने पर उनकी अरुचि भी समाप्त हो जाएगी।
अग्निदेव ने कई बार प्रयत्न किया किंतु इन्द्र ने तक्षक नाग तथा जानवरों की रक्षा हेतु खांडव वन नहीं जलाने दिया। अग्नि पुनः ब्रह्मा के पास पहुंचे। ब्रह्मा से कहा कि अर्जुन तथा कृष्ण खांडव वन के निकट बैठे हैं, उनसे प्रार्थना करें।
तब अग्निदेव ने दोनों से भोजन के रूप में खांडव वन की याचना की। अर्जुन के यह कहने पर भी कि उसके पास वेग वहन करने वाला कोई धनुष, अमित बाणों से युक्त तरकश तथा वेगवान रथ नहीं है। अग्निदेव ने वरुणदेव का आवाहन करके गांडीव धनुष, अक्षय तरकश, दिव्य घोड़ों से जुता हुआ एक रथ (जिस पर कपि ध्वज लगी थी) लेकर अर्जुन को समर्पित किया। बाद में अग्निदेव ने कृष्ण को एक चक्र समर्पित किया।
तदनंतर अग्निदेव ने खांडव वन को सब ओर से प्रज्वलित कर दिया। इन्द्र सहित सभी देवता खांडव वन को बचाने के लिए आए लेकिन उनका सामना कृष्ण और अर्जुन से हुआ। अंततोगत्वा सभी हार गए। खांडव वनदाह से तक्षक नाग, अश्वसेन, मायासुर तथा चार शांगर्क नामक पक्षी बच गए थे। इस वनदाह से अग्निदेव तृप्त हो गए तथा उनका रोग भी नष्ट हो गया।
इसके अतिरिक्त गांडीव धनुष और अक्षय तरकश भी दिव्य अस्त्रों में शामिल है! कहते हैं कि गांडीव धनुष अलौकिक था। यह धनुष वरुण के पास था। वरुण ने इसे अग्निदेव को दे दिया था और अग्निदेव से अर्जुन को प्राप्त हुआ था। यह धनुष देव, दानव तथा गंधर्वों से अनंत वर्षों तक पूजित रहा था। वह किसी शस्त्र से नष्ट नहीं हो सकता था तथा अन्य लाख धनुषों की समता कर सकता था। जो भी इसे धारण करता था उसमें शक्ति का संचार हो जाता था। 
अर्जुन के अक्षय तरकश के बाण कभी समाप्त नहीं होते थे। गति को तीव्रता प्रदान करने के लिए जो रथ अर्जुन को मिला, उसमें अलौकिक घोड़े जुते हुए थे जिसके शिखर के अग्र भाग पर हनुमानजी बैठे थे और शिखर पर कपि ध्वज लहराता था। इसी के साथ उस रक्ष में अन्य जानवर विद्यमान थे, जो भयानक गर्जना करते थे।

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5- पारसमणि :-  पारसमणि का जिक्र पौराणिक और लोककथाओं में खूब मिलता है। इसके हजारों किस्से और कहानियां समाज में प्रचलित हैं। कई लोग यह दावा भी करते हैं कि हमने पारसमणि देखी है। मध्यप्रदेश के पन्ना जिले में जहां हीरे की खदान है, वहां से 70 किलोमीटर दूर दनवारा गांव के एक कुएं में रात को रोशनी दिखाई देती है। लोगों का मानना है कि कुएं में पारसमणि है।
पारसमणि की प्रसिद्धि और लोगों में इसके होने को लेकर इतना विश्‍वास है कि भारत में कई ऐसे स्थान हैं, जो पारस के नाम से जाने जाते हैं। कुछ लोगों के आज भी पारस नाम होते हैं।
पारसमणि की विशेषता  : -  पारसमणि से लोहे की किसी भी चीज को छुआ देने से वह सोने की बन जाती थी। इससे लोहा काटा भी जा सकता है। कहते हैं कि कौवों को इसकी पहचान होती है और यह हिमालय के आस-पास ही पाई जाती है। हिमालय के साधु-संत ही जानते हैं कि पारसमणि को कैसे ढूंढा जाए, क्योंकि वे यह जानते हैं कि कैसे कौवे को ढूंढने के लिए मजबूर किया जाए।


6 - अश्वत्थामा की मणि : -  मणि एक प्रकार का चमकता हुआ पत्थर होता है। मणि को हीरे की श्रेणी में रखा जा सकता है। इन्हीं में से कुछ मणियां चमत्कारिक थीं। जिसके भी पास मणि होती थी वह कुछ भी कर सकता था। रावण ने कुबेर से चंद्रकांत नाम की मणि छीन ली थी। वहीं मणि आजकल बैद्यनाथ मंदिर में विद्यमान है।
द्रोणाचार्य के पुत्र अश्वत्थामा के पास एक चमत्कारिक मणि थी जिसके बल पर वह शक्तिशाली और अमर हो गया था। अश्वत्थामा द्रोणाचार्य के पुत्र थे। द्रोणाचार्य ने शिव को अपनी तपस्या से प्रसन्न करके उन्हीं के अंश से अश्वत्थामा नामक पुत्र को प्राप्त किया। अश्‍वत्थामा के पास शिवजी द्वारा दी गई कई शक्तियां थीं। वे स्वयं शिव का अंश थे।
जन्म से ही अश्वत्थामा के मस्तक में एक अमूल्य मणि विद्यमान थी, जो कि उसे दैत्य, दानव, शस्त्र, व्याधि, देवता, नाग आदि से निर्भय रखती थी। इस मणि के कारण ही उस पर किसी भी अस्त्र-शस्त्र का असर नहीं हो पाता था।
द्रौपदी ने अश्‍वत्थामा को जीवनदान देते हुए अर्जुन से उसकी मणि उतार लेने का सुझाव दिया अत: अर्जुन ने इनकी मुकुट मणि लेकर प्राणदान दे दिया। अर्जुन ने यह मणि द्रौपदी को दे दी जिसे द्रौपदी ने युधिष्ठिर के अधिकार में दे दी। युधिष्ठिर के पास से यह मणि किसके पास चली गई? इसका कोई उल्लेख नहीं मिलता है।
शिव महापुराण (शतरुद्रसंहिता-37) के अनुसार अश्वत्थामा आज भी जीवित हैं और वे गंगा के किनारे निवास करते हैं किंतु उनका निवास कहां है? यह नहीं बताया गया है।

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7- स्यमंतक मणि : -  कुछ लोग कोहिनूर को ही स्यमंतक मणि मानते हैं। हालांकि इसमें कितनी सच्चाई है यह हम नहीं जानते। सबसे पहले यह मणि इन्द्रदेव के पास थी। वे इसे धारण करते थे। इन्द्रदेव ने यह मणि सूर्यदेव को दे दी थी। बहुत काल के बाद यह मणि राजा सत्राजित के पास पाई गई। सत्राजित ने यह मणि अपने देवघर में रखी थी। वहां से वह मणि पहनकर उनका भाई प्रसेनजित आखेट के लिए चला गया। जंगल में उसे और उसके घोड़े को एक सिंह ने मार दिया और मणि अपने पास रख ली। सिंह के पास मणि देखकर जाम्बवंतजी ने सिंह को मारकर मणि उससे ले ली और उस मणि को लेकर वे अपनी गुफा में चले गए, जहां उन्होंने इसको खिलौने के रूप में अपने पुत्र को दे दी।
जब प्रसेनजित कई दिनों तक शिकार से न लौटा तो सत्राजित को बड़ा दुख हुआ। उसने सोचा कि श्रीकृष्ण ने ही मणि प्राप्त करने के लिए उसका वध कर दिया होगा अतः बिना किसी प्रकार की जानकारी जुटाए उसने प्रचार कर दिया कि श्रीकृष्ण ने प्रसेनजित को मारकर स्यमंतक मणि छीन ली है, तब श्रीकृष्ण ने अपने ऊपर लगे लांछन को मिटाने के लिए मणि की खोज की।
इस लोक-निंदा के निवारण के लिए श्रीकृष्ण बहुत से लोगों के साथ प्रसेनजित को ढूंढने वन में गए। वहां पर प्रसेनजित को शेर द्वारा मार डालने और शेर को रीछ द्वारा मारने के चिह्न उन्हें मिल गए। रीछ के पैरों की खोज करते-करते वे जाम्बवंत की गुफा पर पहुंचे और गुफा के भीतर चले गए। वहां उन्होंने देखा कि जाम्बवंत की पुत्री उस मणि से खेल रही है। श्रीकृष्ण को देखते ही जाम्बवंत युद्ध के लिए तैयार हो गया।
युद्ध छिड़ गया। गुफा के बाहर श्रीकृष्ण के साथियों ने उनकी 7 दिन तक प्रतीक्षा की, फिर वे लोग उन्हें मरा जानकर पश्चाताप करते हुए द्वारिकापुरी लौट गए। इधर 21 दिनों तक लगातार युद्ध करने पर भी जाम्बवंत श्रीकृष्ण को पराजित न कर सका। तब उसने सोचा, कहीं यह वह अवतार तो नहीं जिसके लिए मुझे रामचंद्रजी का वरदान मिला था। यह पुष्टि होने पर उसने अपनी कन्या का विवाह श्रीकृष्ण के साथ कर दिया और मणि दहेज में दे दी। उल्लेखनीय है कि जाम्बवंती-कृष्ण के संयोग से महाप्रतापी पुत्र का जन्म हुआ जिसका नाम साम्ब रखा गया। इस साम्ब के कारण ही कृष्ण कुल का नाश हो गया था। 
श्रीकृष्ण जब मणि लेकर वापस आए तो सत्राजित अपने किए पर बहुत लज्जित हुआ। इस लज्जा से मुक्त होने के लिए उसने भी अपनी पुत्री का विवाह श्रीकृष्ण के साथ कर दिया। उन्होंने कहा कि अब आप ही इस मणि को रखिए, तब श्रीकृष्ण ने कहा कि कोई ब्रह्मचारी और संयमी व्यक्ति ही इस मणि को धरोहर के रूप में रखने का अधिकारी है। श्रीकृष्ण जानते थे कि इस मणि को रखने का अर्थ क्या है अत: उन्होंने वह मणि सत्राजित को दे दी। कुछ कथाओं के अनुसार यह मणि श्रीकृष्ण ने अक्रूरजी को दे दी थी। उनके पास से यह कहां चली गई, यह कोई नहीं जानता। हालांकि कहते हैं कि यह मणि जिसके भी पास रही वह महान शासक तो बना लेकिन अंत में उसका बहुत बुरा पतन हो गया।


8 - पाञ्चजन्य शंख : -  महाभारत में कृष्ण के पास पाञ्चजन्य, अर्जुन के पास देवदत्त, युधिष्ठिर के पास अनंतविजय, भीष्म के पास पोंड्रिक, नकुल के पास सुघोष, सहदेव के पास मणिपुष्पक था। सभी के शंखों का महत्व और शक्ति अलग-अलग थी। शंखों की शक्ति और चमत्कारों का वर्णन महाभारत और पुराणों में मिलता है। समुद्र मंथन के दौरान इस पाञ्चजन्य शंख की उत्पत्ति हुई थी। शंख को ‍विजय, समृद्धि, सुख, शांति, यश, कीर्ति और लक्ष्मी का प्रतीक माना गया है। सबसे महत्वपूर्ण यह कि शंख नाद का प्रतीक है। शंख ध्वनि शुभ मानी गई है।
हालांकि प्राकृतिक रूप से शंख कई प्रकार के होते हैं। इनके 3 प्रमुख प्रकार हैं- दक्षिणावृत्ति शंख, मध्यावृत्ति शंख तथा वामावृत्ति शंख। इन शंखों के कई उप प्रकार होते हैं। 
प्रमुख शंख :-  लक्ष्मी शंख, गोमुखी शंख, कामधेनु शंख, विष्णु शंख, देव शंख, चक्र शंख, पौंड्र शंख, सुघोष शंख, गरूड़ शंख, मणिपुष्पक शंख, राक्षस शंख, शनि शंख, राहु शंख, केतु शंख, शेषनाग शंख, कच्छप शंख आदि प्रकार के होते हैं, लेकिन पाञ्चजन्य शंख इन सभी से अलग था।
भगवान श्रीकृष्ण के पास पाञ्चजन्य शंख था। कहते हैं कि यह शंख आज भी कहीं मौजूद है। इस शंख के हरियाणा के करनाल में होने के बारे में कहा जाता रहा है। माना जाता है कि यह करनाल से 15 किलोमीटर दूर पश्चिम में काछवा व बहलोलपुर गांव के समीप स्थित पराशर ऋषि के आश्रम में रखा था, जहां से यह चोरी हो गया। यहां हिन्दू धर्म से जुड़ी कई बेशकीमती वस्तुएं थीं। 
मान्यता है कि भगवान श्रीकृष्ण ने महाभारत युद्ध के बाद अपना पाञ्चजन्य शंख पराशर ऋषि तीर्थ में रखा था। हालांकि कुछ लोगों का मानना है कि श्रीकृष्ण का यह शंख आदि बद्री में सुरक्षित रखा है।
महाभारत युद्ध में श्रीकृष्ण अपने पाञ्चजन्य शंख से पांडव सेना में उत्साह का संचार ही नहीं करते थे बल्कि इससे कौरवों की सेना में भय व्याप्त हो जाता था। इसकी ध्वनि सिंह गर्जना से भी कहीं ज्यादा भयानक थी। इस शंख को विजय व यश का प्रतीक माना जाता है। इसमें 5 अंगुलियों की आकृति होती है। हालांकि पाञ्चजन्य शंख अब भी मिलते हैं लेकिन वे सभी चमत्कारिक नहीं हैं। इन्हें घर को वास्तुदोषों से मुक्त रखने के लिए स्थापित किया जाता है। यह राहु और केतु के दुष्प्रभावों को भी कम करता है।


9- कौस्तुभ मणि:-  मंथन के दौरान 5वां रत्न था कौस्तुभ मणि। कौस्तुभ मणि को भगवान विष्णु धारण करते हैं। माना जाता है कि यह मणि देवताओं और असुरों द्वारा किये गए समुद्र मंथन के समय प्राप्त चौदह मूल्यवान वस्तुओं में से एक थी। यह बहुत ही कांतिमान थी और जहाँ भी यह मणि होती है, वहाँ किसी भी प्रकार की दैवीय आपदा नहीं होती। महाभारत में उल्लेख है कि कालिय नाग को श्रीकृष्ण ने गरूड़ के त्रास से मुक्त किया था। उस समय कालिय नाग ने अपने मस्तक से उतारकर श्रीकृष्ण को कौस्तुभ मणि दे दी थी।
यह एक चमत्कारिक मणि है। माना जाता है कि इच्छाधारी नागों के पास ही अब यह मणि बची है या फिर समुद्र की किसी अतल गहराइयों में कहीं दबी पड़ी होगी। हो सकता है कि धरती की किसी गुफा में दफन हो यह मणि।


10 - संजीवनी बूटी : -  यह एक ऐसी जड़ी है जिसको खाने से जब तक उसका असर रहता है, तब तक व्यक्ति गायब रहता है। यह एक ऐसी बूटी है जिसका सेवन करने से व्यक्ति को भूत-भविष्‍य का ज्ञान हो जाता है। क्या सचमुच ऐसा है? क्या संजीवनी बूटी होती है? आजकल वैज्ञानिक पारे, गंधक और आयुर्वेद में उल्लेखित कई प्रकार की जड़ी-बूटियों पर शोध कर रहे हैं और इसके चमत्कारिक परिणाम भी निकले हैं।
आयुर्वेद और अथर्ववेद में उल्लेख है कि इस तरह की जड़ी-बूटियां होती हैं जिसके प्रयोग से स्वर्ण बनाया जा सकता है। सोने के निर्माण में तेलिया कंद-जड़ी बूटी का बहुत बड़ा योगदान माना जाता है। ऐसी भी औषधियां होती हैं, जो व्यक्ति को फिर से जवान बना देती हैं। औषधियों के बल पर व्यक्ति 500 वर्षों तक निरोगी रहकर जिंदा रह सकताj है।
माना जाता है कि जड़ी-बूटियों के बल पर जहां सभी तरह के दुख-दर्द दूर किए जा सकते हैं, वहीं धनवान भी बना जा सकता है। जड़ी-बूटियों से 'सम्मोहन टीका' भी बनाया जाता है। जड़ी-बूटियों के माध्यम से धन, यश, कीर्ति, सम्मान आदि सभी कुछ पाया जा सकता है।













 


और इसी प्रकार कुछ विशेष दैवीय अथवा रहस्यमय स्थान भी रहें है -


1  काला डुंगर: गुजरात की यह जगह बेहद रहस्यमयी है|  इस सड़क पर जो ढलान है वहां गाड़ी नीचे उतरते हुए तो रफ्तार पकड़ती ही है लेकिन अजीब बात यह है कि ऊपर चढ़ते हुए भी गाड़ी तेज गति से भागने लगती है|  विशेषज्ञों ने यह जानने की कोशिश तो की कि ऐसा क्यों हो रहा है लेकिन कोई भी इसके पीछे का रहस्य नहीं समझ पाया| 


2 तुलसीश्याम: गुजरात के गिर जंगल की तरफ जाने वाले मार्ग तुलसीश्याम की भी अजीब कहानी है|  गुरुत्वाकर्षण के नियम को नकारती इस सड़क को गुजरात की एंटी ग्रैविटेशनल सड़क भी कहा जाता है|  यहां कोई भी गाड़ी या वस्तु नीचे की तरफ नहीं बल्कि ऊपर की ओर चढ़ती है| 


3 पहाड़ी का रहस्य: अमरेली स्थित बाबरा शहर से लगभग 7 किलोमीटर दूर करियाणा गांव में एक रहस्यमयी पहाड़ी है|  इस पहाड़ी की खासियत यह है कि इस पहाड़ी के प्रत्येक पत्थर में से झालर के बजने जैसी आवाज आती है|  इस पहाड़ी पर ग्रेनाइट के महंगे पत्थर काफी मात्रा में मिलते हैं|  लेकिन अभी तक कोई भी यह पता नहीं लगा पाया कि इन पत्थरों से आवाज क्यों आती है|  पत्थरों में से आने वाली आवाज के पीछे एक धार्मिक मान्यता भी विद्यमान है जिसके अनुसार प्राचीन समय में एक बार यहां स्वामीनारायण भगवान आए थे और पूजा अर्चना के समय इन पत्थरों को घंटी के रूप में प्रयोग किया गया| 


4 ठोकर मारते ही नगाड़े बजने लगते हैं: जूनागढ़ (गुजरात) स्थित पवित्र गिरनार के समीप दातार पर्वत के नगरिया पत्थर यहां आने वाले श्रद्धालुओं का केन्द्र है|  यहां के पत्थरों की खासियत यह है कि इन पत्थरों को ठोकर मारते ही इसमें से नगाड़े बजने की आवाज आने लगती है|  दातार पर्वत गिरनार के दक्षिण में जूनागढ़ से मात्र 2 किमी की दूरी पर स्थित है| 


5 टुवा टिंबा: यह स्थान भी गुजरात के गोधरा से लगभग 15 किलोमीटर दूर है|  यहां गर्म पानी का एक कुंड है जिसका पानी कभी खत्म नहीं होता|  इतना ही नहीं यह पानी सालभर एकदम गर्म रहता है|  अब इसके गर्म रहने के पीछे क्या कारण है यह भी अभी तक कोई जान नहीं पाया|  इस पानी से स्नान करने के बाद श्रद्धालुओं की यात्रा सफल होती है|  पौराणिक कथा के अनुसार पांडव और भगवान राम ने भी इस स्थल की यात्रा की थी|  ऐसा भी माना जाता है कि संत सूरदास के उपचार हेतु गर्म पानी के लिए यह जमीन भगवान राम ने खुद भेदी थी जहां से गर्म पानी का प्रवाह शुरू हुआ| 


Devi kavach in Hindi |देवी कवच हिंदी भावार्थ के साथ

ऐसी मान्यता है कि दुर्गा की आराधना में भगवती के कवच का जाप कर तमाम तरह के रोगों से राहत मिल सकती है | कवच का जिक्र आठ प्रमुख पुराणों में मार्कण्डेय पुराण के अंदर है| इसे पढ़ने से देवी तमाम तरह के रोगों से हमें बचाती हैं| इसे जरूर पढ़ना चाहिए| आइये कवच Devi kavach के प्रत्येक श्लोक को हिंदी भावार्थ के साथ पढ़ें और समझें कि देवी क्यों और कैसे करती हैं रोगों से हमारी रक्षा| 

Devi kavach in Hindi |देवी कवच हिंदी भावार्थ के साथ


कवच Devi Kavach का अर्थ होता है रक्षा करने वाला, अपने चारों ओर एक प्रकार का आवरण बना देना कवच कहलाता है|  देवी कवच Durga Kavach के तहत हम देवी माँ के विभिन्न नामों का उच्चारण करते हैं, जो हमारे इर्द-गिर्द, हमारे शरीर के चारो ओर एक कवच का निर्माण कर देते हैं|  इसका अनुष्ठान विशेष कर नवरात्रि के सभी नवों दिन में किया जाता है। यह हमारे लिए बहुत लाभकारी है | चारों ओर फैले नकारात्मकता को खत्म करने के लिए एक शक्तिशाली मंत्रो का संग्रह देवी कवच के रूप में है|  यह किसी भी बुरी हालातों से रक्षा करने में एक कवच के रूप में कार्य करता है| अठारह प्रमुख पुराणों में से एक मार्कंडेय पुराण के अंदर देवी कवच (दुर्गा कवच) के श्लोक शामिल हैं और यह देवी की स्तुती में पढ़े जाने वाले दुर्गा सप्तशती का हिस्सा है| देवी कवच को भगवान ब्रह्मा ने ऋषि मार्कंडेय को सुनाया था| देवी कवच Durga Kavach में शरीर के समस्त अंगों का उल्लेख है, साथ ही फलश्रुति का भी इसमें जिक्र है जो देवी कवच का फायदा बताता है|  इसे पढकर हम भगवती से कामना करते रहें कि हम निरोगी रहें| 

 अथ देवी कवचम्

ॐ नमश्चण्डिकायै मार्कण्डेय उवाच --
ॐ यद्गुह्यं परमं लोके सर्वरक्षाकरं नृणाम् । 

यन्न कस्यचिदाख्यातं तन्मे ब्रूहि पितामह ॥१॥


ब्रह्मोवाच -- अस्ति गुह्यतमं विप्र सर्वभूतोपकारकम् । 

देव्यास्तु कवचं पुण्यं तच्छृणुष्व महामुने ॥२॥


प्रथमं शैलपुत्रीति द्वितीयं ब्रह्मचारिणी । 

तृतीयं चन्द्रघण्टेति कूष्माण्डेति चतुर्थकम् ॥३॥


पञ्चमं स्कन्दमातेति षष्ठं कात्यायनी तथा । 

सप्तमं कालरात्रिश्च महागौरीति चाष्टमम् ॥४॥


नवमं सिद्धिदात्री च नवदुर्गाः प्रकीर्तिताः । 

उक्तान्येतानि नामानि ब्रह्मणैव महात्मना ॥५॥


अग्निना दह्यमानास्तु शत्रुमध्यगता रणे ।

 विषमे दुर्गमे चैव भयार्ताः शरणं गताः ॥६।


न तेषां जायते किञ्चिदशुभं रणसङ्कटे । 

आपदं न च पश्यन्ति शोकदुःखभयङ्करीम् ॥७॥


यैस्तु भक्त्या स्मृता नित्यं तेषां वृद्धिः प्रजायते ।

 ये त्वां स्मरन्ति देवेशि रक्षसि तान्न संशयः ॥८॥


प्रेतसंस्था तु चामुण्डा वाराही महिषासना ।

 ऐन्द्री गजसमारूढा वैष्णवी गरुडासना ॥९॥


नारसिंही महावीर्या शिवदूती महाबला । 

माहेश्वरी वृषारूढा कौमारी शिखिवाहना ॥१०॥


लक्ष्मीः पद्मासना देवी पद्महस्ता हरिप्रिया । 

श्वेतरूपधरा देवी ईश्वरी वृषवाहना ॥११॥


ब्राह्मी हंसमारूढा सर्वाभरणभूषिता । 

इत्येता मातरः सर्वाः सर्वयोगसमन्विताः ॥१२॥


नानाभरणशोभाढ्या नानारत्नोपशोभिताः । 

श्रैष्ठैश्च मौक्तिकैः सर्वा दिव्यहारप्रलम्बिभिः ॥१३॥


इन्द्रनीलैर्महानीलैः पद्मरागैः सुशोभनैः । 

दृश्यन्ते रथमारूढा देव्यः क्रोधसमाकुलाः ॥१४॥


शङ्खं चक्रं गदां शक्तिं हलं च मुसलायुधम् । 

खेटकं तोमरं चैव परशुं पाशमेव च ॥१५॥


कुन्तायुधं त्रिशूलं च शार्ङ्गमायुधमुत्तमम् । 

दैत्यानां देहनाशाय भक्तानामभयाय च ॥१६॥


धारयन्त्यायुधानीत्थं देवानां च हिताय वै । 

नमस्तेऽस्तु महारौद्रे महाघोरपराक्रमे ॥१७॥


महाबले महोत्साहे महाभयविनाशिनि । 

त्राहि मां देवि दुष्प्रेक्ष्ये शत्रूणां भयवर्धिनि ॥१८॥


प्राच्यां रक्षतु मामैन्द्री आग्नेय्यामग्निदेवता ।

 दक्षिणेऽवतु वाराही नैऋत्यां खड्गधारिणी ॥१९॥


प्रतीच्यां वारुणी रक्षेद्वायव्यां मृगवाहिनी । 

उदीच्यां पातु कौबेरी ईशान्यां शूलधारिणी ॥२०॥


ऊर्ध्वं ब्रह्माणी मे रक्षेदधस्ताद्वैष्णवी तथा । 

एवं दश दिशो रक्षेच्चामुण्डा शववाहना ॥२१॥


जया मामग्रतः पातु विजया पातु पृष्ठतः । 

अजिता वामपार्श्वे तु दक्षिणे चापराजिता ॥२२॥


शिखां मे द्योतिनी रक्षेदुमा मूर्ध्नि व्यवस्थिता । 

मालाधरी ललाटे च भ्रुवौ रक्षेद्यशस्विनी ॥२३॥


नेत्रयोश्चित्रनेत्रा च यमघण्टा तु पार्श्वके । 

त्रिनेत्रा च त्रिशूलेन भ्रुवोर्मध्ये च चण्डिका ॥२४॥


शङ्खिनी चक्षुषोर्मध्ये श्रोत्रयोर्द्वारवासिनी । 

कपोलौ कालिका रक्षेत् कर्णमूले तु शङ्करी ॥२५॥


नासिकायां सुगन्धा च उत्तरोष्टे च चर्चिका । 

अधरे चामृताबाला जिह्वायां च सरस्वती ॥२६॥


दन्तान् रक्षतु कौमारी कण्ठदेशे तु चण्डिका । 

घण्टिकां चित्रघण्टा च महामाया च तालुके ॥२७॥


कामाक्षी चिबुकं रक्षेद्वाचं मे सर्वमङ्गला । 

ग्रीवायां भद्रकाली च पृष्ठवंशे धनुर्धरी ॥२८॥


नीलग्रीवा बहिः कण्ठे नलिकां नलकूबरी । 

स्कन्धयोः खड्गिनी रक्षेद् बाहू मे वज्रधारिणी ॥२९॥


हस्तयोर्दण्डिनी रक्षेदम्बिका चाङ्गुलीषु च । 

नखाञ्छूलेश्वरी रक्षेत् कुक्षौ रक्षेन्नरेश्वरी ॥३०॥


स्तनौ रक्षेन्महादेवी मनःशोकविनाशिनी । 

हृदये ललिता देवी उदरे शूलधारिणी ॥३१॥


नाभौ च कामिनी रक्षेद् गुह्यं गुह्येश्वरी तथा । 

मेढ्रं रक्षतु दुर्गन्धा पायुं मे गुह्यवाहिनी ॥३२॥


कट्यां भगवती रक्षेदूरू मे मेघवाहना । 

जङ्घे महाबला रक्षेत् जानू माधवनायिका ॥३३॥


गुल्फयोर्नारसिंही च पादपृष्ठे तु कौशिकी । 

पादाङ्गुलीः श्रीधरी च तलं पातालवासिनी ॥३४॥


नखान् दंष्ट्रकराली च केशांश्चैवोर्ध्वकेशिनी । 

रोमकूपेषु कौमारी त्वचं योगीश्वरी तथा ॥३५॥


रक्तमच्चावसामांसान्यस्थिमेदांसि पार्वती । 

अन्त्राणि कालरात्रिश्व पित्तं च मुकुटेश्वरी ॥३६॥


पद्मावती पद्मकोशे कफे चूडामणिस्तथा । 

ज्वालामुखी नखज्वालामभेद्या सर्वसन्धिषु ॥३७॥


शुक्रं ब्रह्माणी मे रक्षेच्छायां छत्रेश्वरी तथा । 

अहङ्कारं मनो बुद्धिं रक्षेन्मे धर्मधारिणी ॥३८॥


प्राणापानौ तथा व्यानमुदानं च समानकम् ।

 वज्रहस्ता च मे रक्षेत् प्राणान् कल्याणशोभना ॥३९॥


रसे रूपे च गन्धे च शब्दे स्पर्शे च योगिनी । 

सत्त्वं रजस्तमश्वैव रक्षेन्नारायणी सदा ॥४०॥


आयू रक्षतु वाराही धर्मं रक्षतु पार्वती । 

यशः कीर्तिं च लक्ष्मीं च सदा रक्षतु वैष्णवी ॥४१॥


गोत्रमिन्द्राणी मे रक्षेत् पशून् रक्षेच्च चण्डिका । 

पुत्रान् रक्षेन्महालक्ष्मीर्भार्यां रक्षतु भैरवी ॥४२॥


धनेश्वरी धनं रक्षेत् कौमारी कन्यकां तथा । 

पन्थानं सुपथा रक्षेन्मार्गं क्षेमङ्करी तथा ॥४३॥


राजद्वारे महालक्ष्मीर्विजया सतत स्थिता ।

 रक्षाहीनं तु यत् स्थानं वर्जितं कवचेन तु ॥४४॥


तत्सर्वं रक्ष मे देवि जयन्ती पापनाशिनी । 

सर्वरक्षाकरं पुण्यं कवचं सर्वदा जपेत् ॥४५॥


इदं रहस्यं विप्रर्षे भक्त्या तव मयोदितम् ॥

पादमेकं न गच्छेत् तु यदीच्छेच्छुभमात्मनः ॥४६॥


कवचेनावृतो नित्यं यत्र यत्रैव गच्छति । 

तत्र तत्रार्थलाभश्व विजयः सार्वकालिकः ॥४७॥


यं यं चिन्तयते कामं तं तं प्राप्नोति निश्चितम् । 

परमैश्वर्यमतुलं प्राप्स्यते भूतले पुमान् ॥४८॥


निर्भयो जायते मर्त्यः सङ्ग्रामेष्वपराजितः । 

त्रैलोक्ये तु भवेत्पूज्यः कवचेनावृतः पुमान् ॥४९॥


इदं तु देव्याः कवचं देवानामपि दुर्लभम् । 

यः पठेत्प्रयतो नित्यं त्रिसन्ध्यं श्रद्धयान्वितः ॥५०॥


देवीकला भवेत्तस्य त्रैलोक्ये चापराजितः । 

जीवेद्वर्षशतं साग्रमपमृत्युविवर्जितः ॥५१॥


नश्यन्ति व्याधयः सर्वे लूताविस्फोटकादयः । 

स्थावरं जङ्गमं चैव कृत्रिमं चैव यद्विषम् ॥५२॥


अभिचाराणि सर्वाणि मन्त्रयन्त्राणि भूतले । 

भूचराः खेचराश्चैव कुलजाश्चौपदेशिकाः ॥५३॥


सहजा कुलजा माला डाकिनी शाकिनी तथा । 

अन्तरिक्षचरा घोरा डाकिन्यश्च महारवाः ॥५४॥


गृहभूतपिशाचाश्च यक्षगन्धर्वराक्षसाः । 

ब्रह्मराक्षसवेतालाः कूष्माण्डा भैरवादयः ॥५५॥


नश्यन्ति दर्शनात्तस्य कवचेनावृतो हि यः ।

 मानोन्नतिर्भवेद्राज्ञास्तेजोवृद्धिः परा भवेत् ॥५६॥


यशोर्वृद्धिर्भवेत् पुंसां कीर्तिवृद्धिश्च जायते । 

तस्मात् जपेत् सदा भक्तः कवचं कामदं मुने ॥५७॥


जपेत् सप्तशतीं चण्डीं कृत्वा तु कवचं पुरा ।

निर्विघ्नेन भवेत् सिद्धिश्चण्डीजपसमुद्भवा ॥५८॥


यावद्भूमण्डलं धत्ते सशैलवनकाननम् ।

 तावत्तिष्ठति मेदिन्यां सन्ततिः पुत्रपौत्रिकी ॥५९॥


देहान्ते परमं स्थानं सुरैरपि सुदुर्लभम् । 

प्राप्नोति पुरुषो नित्यं महामायाप्रसादतः ॥६०॥


तत्र गच्छति गत्वासौ पुनश्चागमनं नहि । 

लभते परमं स्थानं शिवेन समतां व्रजेत् ॥६१


॥इति श्रीमार्कण्डेयपुराणे हरिहरब्रह्मविरचितं देवीकवचं समाप्तम् ।

 

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