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रविवार, 7 फ़रवरी 2021

Devi kavach in Hindi |देवी कवच हिंदी भावार्थ के साथ

ऐसी मान्यता है कि दुर्गा की आराधना में भगवती के कवच का जाप कर तमाम तरह के रोगों से राहत मिल सकती है | कवच का जिक्र आठ प्रमुख पुराणों में मार्कण्डेय पुराण के अंदर है| इसे पढ़ने से देवी तमाम तरह के रोगों से हमें बचाती हैं| इसे जरूर पढ़ना चाहिए| आइये कवच Devi kavach के प्रत्येक श्लोक को हिंदी भावार्थ के साथ पढ़ें और समझें कि देवी क्यों और कैसे करती हैं रोगों से हमारी रक्षा| 

Devi kavach in Hindi |देवी कवच हिंदी भावार्थ के साथ


कवच Devi Kavach का अर्थ होता है रक्षा करने वाला, अपने चारों ओर एक प्रकार का आवरण बना देना कवच कहलाता है|  देवी कवच Durga Kavach के तहत हम देवी माँ के विभिन्न नामों का उच्चारण करते हैं, जो हमारे इर्द-गिर्द, हमारे शरीर के चारो ओर एक कवच का निर्माण कर देते हैं|  इसका अनुष्ठान विशेष कर नवरात्रि के सभी नवों दिन में किया जाता है। यह हमारे लिए बहुत लाभकारी है | चारों ओर फैले नकारात्मकता को खत्म करने के लिए एक शक्तिशाली मंत्रो का संग्रह देवी कवच के रूप में है|  यह किसी भी बुरी हालातों से रक्षा करने में एक कवच के रूप में कार्य करता है| अठारह प्रमुख पुराणों में से एक मार्कंडेय पुराण के अंदर देवी कवच (दुर्गा कवच) के श्लोक शामिल हैं और यह देवी की स्तुती में पढ़े जाने वाले दुर्गा सप्तशती का हिस्सा है| देवी कवच को भगवान ब्रह्मा ने ऋषि मार्कंडेय को सुनाया था| देवी कवच Durga Kavach में शरीर के समस्त अंगों का उल्लेख है, साथ ही फलश्रुति का भी इसमें जिक्र है जो देवी कवच का फायदा बताता है|  इसे पढकर हम भगवती से कामना करते रहें कि हम निरोगी रहें| 

 अथ देवी कवचम्

ॐ नमश्चण्डिकायै मार्कण्डेय उवाच --
ॐ यद्गुह्यं परमं लोके सर्वरक्षाकरं नृणाम् । 

यन्न कस्यचिदाख्यातं तन्मे ब्रूहि पितामह ॥१॥


ब्रह्मोवाच -- अस्ति गुह्यतमं विप्र सर्वभूतोपकारकम् । 

देव्यास्तु कवचं पुण्यं तच्छृणुष्व महामुने ॥२॥


प्रथमं शैलपुत्रीति द्वितीयं ब्रह्मचारिणी । 

तृतीयं चन्द्रघण्टेति कूष्माण्डेति चतुर्थकम् ॥३॥


पञ्चमं स्कन्दमातेति षष्ठं कात्यायनी तथा । 

सप्तमं कालरात्रिश्च महागौरीति चाष्टमम् ॥४॥


नवमं सिद्धिदात्री च नवदुर्गाः प्रकीर्तिताः । 

उक्तान्येतानि नामानि ब्रह्मणैव महात्मना ॥५॥


अग्निना दह्यमानास्तु शत्रुमध्यगता रणे ।

 विषमे दुर्गमे चैव भयार्ताः शरणं गताः ॥६।


न तेषां जायते किञ्चिदशुभं रणसङ्कटे । 

आपदं न च पश्यन्ति शोकदुःखभयङ्करीम् ॥७॥


यैस्तु भक्त्या स्मृता नित्यं तेषां वृद्धिः प्रजायते ।

 ये त्वां स्मरन्ति देवेशि रक्षसि तान्न संशयः ॥८॥


प्रेतसंस्था तु चामुण्डा वाराही महिषासना ।

 ऐन्द्री गजसमारूढा वैष्णवी गरुडासना ॥९॥


नारसिंही महावीर्या शिवदूती महाबला । 

माहेश्वरी वृषारूढा कौमारी शिखिवाहना ॥१०॥


लक्ष्मीः पद्मासना देवी पद्महस्ता हरिप्रिया । 

श्वेतरूपधरा देवी ईश्वरी वृषवाहना ॥११॥


ब्राह्मी हंसमारूढा सर्वाभरणभूषिता । 

इत्येता मातरः सर्वाः सर्वयोगसमन्विताः ॥१२॥


नानाभरणशोभाढ्या नानारत्नोपशोभिताः । 

श्रैष्ठैश्च मौक्तिकैः सर्वा दिव्यहारप्रलम्बिभिः ॥१३॥


इन्द्रनीलैर्महानीलैः पद्मरागैः सुशोभनैः । 

दृश्यन्ते रथमारूढा देव्यः क्रोधसमाकुलाः ॥१४॥


शङ्खं चक्रं गदां शक्तिं हलं च मुसलायुधम् । 

खेटकं तोमरं चैव परशुं पाशमेव च ॥१५॥


कुन्तायुधं त्रिशूलं च शार्ङ्गमायुधमुत्तमम् । 

दैत्यानां देहनाशाय भक्तानामभयाय च ॥१६॥


धारयन्त्यायुधानीत्थं देवानां च हिताय वै । 

नमस्तेऽस्तु महारौद्रे महाघोरपराक्रमे ॥१७॥


महाबले महोत्साहे महाभयविनाशिनि । 

त्राहि मां देवि दुष्प्रेक्ष्ये शत्रूणां भयवर्धिनि ॥१८॥


प्राच्यां रक्षतु मामैन्द्री आग्नेय्यामग्निदेवता ।

 दक्षिणेऽवतु वाराही नैऋत्यां खड्गधारिणी ॥१९॥


प्रतीच्यां वारुणी रक्षेद्वायव्यां मृगवाहिनी । 

उदीच्यां पातु कौबेरी ईशान्यां शूलधारिणी ॥२०॥


ऊर्ध्वं ब्रह्माणी मे रक्षेदधस्ताद्वैष्णवी तथा । 

एवं दश दिशो रक्षेच्चामुण्डा शववाहना ॥२१॥


जया मामग्रतः पातु विजया पातु पृष्ठतः । 

अजिता वामपार्श्वे तु दक्षिणे चापराजिता ॥२२॥


शिखां मे द्योतिनी रक्षेदुमा मूर्ध्नि व्यवस्थिता । 

मालाधरी ललाटे च भ्रुवौ रक्षेद्यशस्विनी ॥२३॥


नेत्रयोश्चित्रनेत्रा च यमघण्टा तु पार्श्वके । 

त्रिनेत्रा च त्रिशूलेन भ्रुवोर्मध्ये च चण्डिका ॥२४॥


शङ्खिनी चक्षुषोर्मध्ये श्रोत्रयोर्द्वारवासिनी । 

कपोलौ कालिका रक्षेत् कर्णमूले तु शङ्करी ॥२५॥


नासिकायां सुगन्धा च उत्तरोष्टे च चर्चिका । 

अधरे चामृताबाला जिह्वायां च सरस्वती ॥२६॥


दन्तान् रक्षतु कौमारी कण्ठदेशे तु चण्डिका । 

घण्टिकां चित्रघण्टा च महामाया च तालुके ॥२७॥


कामाक्षी चिबुकं रक्षेद्वाचं मे सर्वमङ्गला । 

ग्रीवायां भद्रकाली च पृष्ठवंशे धनुर्धरी ॥२८॥


नीलग्रीवा बहिः कण्ठे नलिकां नलकूबरी । 

स्कन्धयोः खड्गिनी रक्षेद् बाहू मे वज्रधारिणी ॥२९॥


हस्तयोर्दण्डिनी रक्षेदम्बिका चाङ्गुलीषु च । 

नखाञ्छूलेश्वरी रक्षेत् कुक्षौ रक्षेन्नरेश्वरी ॥३०॥


स्तनौ रक्षेन्महादेवी मनःशोकविनाशिनी । 

हृदये ललिता देवी उदरे शूलधारिणी ॥३१॥


नाभौ च कामिनी रक्षेद् गुह्यं गुह्येश्वरी तथा । 

मेढ्रं रक्षतु दुर्गन्धा पायुं मे गुह्यवाहिनी ॥३२॥


कट्यां भगवती रक्षेदूरू मे मेघवाहना । 

जङ्घे महाबला रक्षेत् जानू माधवनायिका ॥३३॥


गुल्फयोर्नारसिंही च पादपृष्ठे तु कौशिकी । 

पादाङ्गुलीः श्रीधरी च तलं पातालवासिनी ॥३४॥


नखान् दंष्ट्रकराली च केशांश्चैवोर्ध्वकेशिनी । 

रोमकूपेषु कौमारी त्वचं योगीश्वरी तथा ॥३५॥


रक्तमच्चावसामांसान्यस्थिमेदांसि पार्वती । 

अन्त्राणि कालरात्रिश्व पित्तं च मुकुटेश्वरी ॥३६॥


पद्मावती पद्मकोशे कफे चूडामणिस्तथा । 

ज्वालामुखी नखज्वालामभेद्या सर्वसन्धिषु ॥३७॥


शुक्रं ब्रह्माणी मे रक्षेच्छायां छत्रेश्वरी तथा । 

अहङ्कारं मनो बुद्धिं रक्षेन्मे धर्मधारिणी ॥३८॥


प्राणापानौ तथा व्यानमुदानं च समानकम् ।

 वज्रहस्ता च मे रक्षेत् प्राणान् कल्याणशोभना ॥३९॥


रसे रूपे च गन्धे च शब्दे स्पर्शे च योगिनी । 

सत्त्वं रजस्तमश्वैव रक्षेन्नारायणी सदा ॥४०॥


आयू रक्षतु वाराही धर्मं रक्षतु पार्वती । 

यशः कीर्तिं च लक्ष्मीं च सदा रक्षतु वैष्णवी ॥४१॥


गोत्रमिन्द्राणी मे रक्षेत् पशून् रक्षेच्च चण्डिका । 

पुत्रान् रक्षेन्महालक्ष्मीर्भार्यां रक्षतु भैरवी ॥४२॥


धनेश्वरी धनं रक्षेत् कौमारी कन्यकां तथा । 

पन्थानं सुपथा रक्षेन्मार्गं क्षेमङ्करी तथा ॥४३॥


राजद्वारे महालक्ष्मीर्विजया सतत स्थिता ।

 रक्षाहीनं तु यत् स्थानं वर्जितं कवचेन तु ॥४४॥


तत्सर्वं रक्ष मे देवि जयन्ती पापनाशिनी । 

सर्वरक्षाकरं पुण्यं कवचं सर्वदा जपेत् ॥४५॥


इदं रहस्यं विप्रर्षे भक्त्या तव मयोदितम् ॥

पादमेकं न गच्छेत् तु यदीच्छेच्छुभमात्मनः ॥४६॥


कवचेनावृतो नित्यं यत्र यत्रैव गच्छति । 

तत्र तत्रार्थलाभश्व विजयः सार्वकालिकः ॥४७॥


यं यं चिन्तयते कामं तं तं प्राप्नोति निश्चितम् । 

परमैश्वर्यमतुलं प्राप्स्यते भूतले पुमान् ॥४८॥


निर्भयो जायते मर्त्यः सङ्ग्रामेष्वपराजितः । 

त्रैलोक्ये तु भवेत्पूज्यः कवचेनावृतः पुमान् ॥४९॥


इदं तु देव्याः कवचं देवानामपि दुर्लभम् । 

यः पठेत्प्रयतो नित्यं त्रिसन्ध्यं श्रद्धयान्वितः ॥५०॥


देवीकला भवेत्तस्य त्रैलोक्ये चापराजितः । 

जीवेद्वर्षशतं साग्रमपमृत्युविवर्जितः ॥५१॥


नश्यन्ति व्याधयः सर्वे लूताविस्फोटकादयः । 

स्थावरं जङ्गमं चैव कृत्रिमं चैव यद्विषम् ॥५२॥


अभिचाराणि सर्वाणि मन्त्रयन्त्राणि भूतले । 

भूचराः खेचराश्चैव कुलजाश्चौपदेशिकाः ॥५३॥


सहजा कुलजा माला डाकिनी शाकिनी तथा । 

अन्तरिक्षचरा घोरा डाकिन्यश्च महारवाः ॥५४॥


गृहभूतपिशाचाश्च यक्षगन्धर्वराक्षसाः । 

ब्रह्मराक्षसवेतालाः कूष्माण्डा भैरवादयः ॥५५॥


नश्यन्ति दर्शनात्तस्य कवचेनावृतो हि यः ।

 मानोन्नतिर्भवेद्राज्ञास्तेजोवृद्धिः परा भवेत् ॥५६॥


यशोर्वृद्धिर्भवेत् पुंसां कीर्तिवृद्धिश्च जायते । 

तस्मात् जपेत् सदा भक्तः कवचं कामदं मुने ॥५७॥


जपेत् सप्तशतीं चण्डीं कृत्वा तु कवचं पुरा ।

निर्विघ्नेन भवेत् सिद्धिश्चण्डीजपसमुद्भवा ॥५८॥


यावद्भूमण्डलं धत्ते सशैलवनकाननम् ।

 तावत्तिष्ठति मेदिन्यां सन्ततिः पुत्रपौत्रिकी ॥५९॥


देहान्ते परमं स्थानं सुरैरपि सुदुर्लभम् । 

प्राप्नोति पुरुषो नित्यं महामायाप्रसादतः ॥६०॥


तत्र गच्छति गत्वासौ पुनश्चागमनं नहि । 

लभते परमं स्थानं शिवेन समतां व्रजेत् ॥६१


॥इति श्रीमार्कण्डेयपुराणे हरिहरब्रह्मविरचितं देवीकवचं समाप्तम् ।

 

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