‘साबर’ या “शबर” शब्द का पर्यायवाची अर्थ ग्रामीण, अपरिष्कृत, असभ्य आदि होता है | ‘साबर-तन्त्र’ – तन्त्र की ग्राम्य (ग्रामीण) शाखा है | इसके प्रवर्तक भगवान् शंकर स्वयं प्रत्यक्षतया नहीं है, किन्तु जिन सिद्ध-साधको ने इसका आविष्कार किया, वे जरुर परम-शिव-भक्त अवश्य थे | गुरु गोरखनाथ तथा गुरु मछिन्दर नाथ ‘साबर-मन्त्र’ के जनक माने जाते हैं | तथा गोरखनाथ जी ही मुख्यतः शाबर मन्त्रो के प्रचारक माने जाते है | वे अपने तपोबल से वे भगवान् शंकर के समान पूज्य माने जाते हैं | अपनी साधना के कारण वे मन्त्र-प्रवर्तक ऋषियों के समान विश्वास और श्रद्धा के पात्र हैं | ‘सिद्ध’ और ‘नाथ’ सम्प्रदायों ने मिलकर परम्परागत मन्त्रों के मूल सिद्धान्तों को लेकर आम बोल-चाल की भाषा को अटपटे स्वरूप देकर उन शब्दों को शाबर मन्त्रो का दर्जा दिया गया |
‘साबर’-मन्त्रों में ‘दुहाई’, ‘गाली’, ‘आन’ और ‘शाप’, ‘श्रद्धा’ और ‘धमकी’ इन सबका प्रयोग किया जाता है | साधक अपने शाबर मन्त्र के देव के समक्ष ‘बालक’ या ‘याचक’ बनकर देवता को सब कुछ कहता है और उसी से सब कुछ कराना चाहता है | जिस प्रकार एक बालक अपने माता पिता से अपनी इच्छित वस्तु प्राप्त करने के लिए कुछ भी अनाप-शनाप कह देता है | और तो और आश्चर्य यह है कि उस साधक की यह ‘दुहाई’, ‘गाली’, ‘आन’ और ‘शाप’, ‘श्रद्धा’ और ‘धमकी’ भी काम करती है | ‘दुहाई’, ‘आन’ का अर्थ है – सौगन्ध, कसम देकर कार्य करवाने को बाध्य करना |
तांत्रिक व् शास्त्रीय प्रयोगों में इस प्रकार की ‘दुहाई’, ‘गाली’, ‘आन’ और ‘शाप’, ‘श्रद्धा’ और ‘धमकी’ आदि नहीं दी जाती है | ‘साबर’-मन्त्रों की रचना में हमे संस्कृत, प्राकृत, अपभ्रंश, और कई क्षेत्रीय भाषाओं का समायोजन मिलता है तो कुछ मन्त्रों में संस्कृत और मलयालय, कन्नड़, गुजराती, बंगाली या तमिल भाषाओं का मिश्रित रुप मिलेगा, तो किन्हीं में शुद्ध क्षेत्रीय भाषाओं की ग्राम्य-शैली भी मिल जाती है |
हालाँकि हिन्दुस्तान में कई तरह की भाषाओ का प्रयोग व्यवहार में लाया जाता है फिर भी इसके बड़े भू-भाग में बोली जाने वाली भाषा ‘हिन्दी’ ही है | अतः अधिकांश ‘साबर’ मन्त्र हिन्दी में ही देखने-सुनने को मिलते हैं | इस मन्त्रों में शास्त्रीय मन्त्रों के समान ‘षड्न्गन्यास’ – ऋषि, छन्द, बीज, शक्ति, कीलक और देवता आदि की प्रक्रिया अलग से नहीं रहती, अपितु इन अंगों का वर्णन मन्त्र में ही सम,समाहित रहता है | इसलिए प्रत्येक ‘साबर’ मन्त्र अपने आप में पूर्ण होते है | उपदेष्टा ‘ऋषि’ के रुप में गोरखनाथ, लोना चमारिन, योगिनी, मरही माता, असावरी देवी, सुलेमान जैसे सिद्ध-पुरुष हैं | कई मन्त्रों में इनके नाम लिए जाते हैं और कईयों में केवल ‘गुरु के नाम से ही काम चल जाता है |
‘पल्लव’ (शास्त्रीय मन्त्रो के अन्त में लगाए जाने वाले शब्द आदि) के स्थान पर
‘शब्द साँचा पिण्ड काचा, फुरो मन्त्र ईश्वरी वाचा’
वाक्य ही सामान्यतः रहता है | इस वाक्य का अर्थ है-
“शब्द (अक्षर/ध्वनि) ही सत्य है, नष्ट नहीं होती |
यह देह (शरीर) अनित्य (हमेशा न रहने वाला) है, बहुत कच्चा है |
हे मन्त्र | तुम ईश्वर की वाणी हो (ईश्वर के वचन से प्रकट होवो)”
इसी प्रकार
‘मेरी भक्ति गुरु की शक्ति
फुरो मन्त्र ईश्वरी वाचा’
और उपरोक्त वाक्य का अर्थ है
“मेरी भक्ति (विश्वास/ श्रद्धा) की ताकत से |
मेरे गुरु की शक्ति से |
हे मन्त्र | तुम ईश्वर की वाणी होकर चलो (ईश्वर के वचन से प्रकट होवो)”
या इससे मिलते-जुलते दूसरे शब्द आदि शाबर मन्त्रों के ‘पल्लव’ होते है |
अन्य मत के अनुसार शाबर मन्त्रो की उत्पत्ति
कहा जाता है कि द्वापरयुग में भगवान् श्री कृष्ण की आज्ञा पाकर अर्जुन ने पशुपति अस्त्र की प्राप्ति के लिए भगवान् शिव की तपस्या शुरू की | एक दिन भगवान् शिव एक शिकारी का भेष बनाकर आये और जब पूजा के बाद अर्जुन ने सुअर पर बाण चलाया तो ठीक उसी वक़्त भगवान् शिव ने भी उस सुअर को तीर मारा अब दोनों में सूअर के हकदारी का विवाद हो गया और शिकारी रुपी शिव ने अर्जुन से कहा- “मुझसे युद्ध करो जो युद्ध में जीत जायेगा सुअर उसी को दीया जायेगा” | अर्जुन और भगवान् शिव में युद्ध शुरू हुआ (इसी युद्ध की महाभारत में किरात युद्ध कहा गया है) | युद्ध देखने के लिए माँ पार्वती भी शिकारी का भेष बना वहां आ गयी और युद्ध देखने लगी तभी भगवान् कृष्ण ने अर्जुन से कहा- “जिसका रोज तप करते हो वही शिकारी के भेष में साक्षात् खड़े है” | अर्जुन ने भगवान् शिव के चरणों में गिरकर प्रार्थना की और भगवान् शिव ने अर्जुन को अपना असली स्वरुप दिखाया |
अर्जुन भगवान् शिव के चरणों में गिर पड़े और पशुपति अस्त्र के लिए प्रार्थना की, भगवान शिव ने अर्जुन को इच्छित वर दिया, उसी समय माँ पार्वती ने भी अपना असली स्वरुप दिखाया | जब शिव और अर्जुन में युद्ध हो रहा था तो माँ भगवती शिकारी का भेष बनाकर बैठी थी और उस समय अन्य शिकारी जो वहाँ युद्ध देख रहे थे उन्होंने जो मॉस का भोजन किया वही भोजन माँ भगवती को शिकारी समझ कर खाने को दिया अत: माता ने वही भोजन ग्रहण किया इसलिए जब माँ भगवती अपने असली रूप में आई तो उन्होंने ने भी शिकारीओं से प्रसन्न होकर कहा- “हे किरातों मैं आप सब से प्रसन्न हूँ , वर मांगो” | इस पर शिकारीओं ने कहा- “हे माँ हम भाषा व्याकरण नहीं जानते और ना ही हमे संस्कृत का ज्ञान है और ना ही हम लम्बे चौड़े विधि विधान कर सकते है पर हमारे मन में भी आपकी और महादेव की भक्ति करने की इच्छा है, इसलिए यदि आप प्रसन्न है तो भगवान शिव से हमे ऐसे मंत्र दिलवा दीजिये जिससे हम सरलता से आप का पूजन कर सके” |
माँ भगवती की प्रसन्नता देख और भीलों की भक्ति भावना देख कर आदिनाथ भगवान् शिव ने आगे चलकर नाथ सम्प्रदाय में साबर मन्त्रों की रचना की | नाथ पंथ में भगवान् शिव को “आदिनाथ” कहा जाता है और माता पार्वती को “उदयनाथ” कहा जाता है भगवान् शिव जी ने यह विद्या भीलों को प्रदान की और बाद में यही विद्या दादा गुरु मत्स्येन्द्रनाथ को मिली, उन्होंने इस विद्या का बहुत प्रचार प्रसार किया और अन्य कई करोड़ साबर मन्त्रों की रचना की उनके बाद उनके शिष्य गुरु गोरखनाथ जी ने इस परम्परा को आगे बढ़ाया और नवनाथ एवं चौरासी सिद्धों के माध्यम से इस विद्या का बहुत प्रचार हुआ | और ऐसा भी कहा जाता है कि योगी कानिफनाथ जी ने 5 करोड़ साबर मन्त्रों की रचना की और वही चर्पटनाथ जी ने 16 करोड़ मन्त्रों की रचना की और योगी जालंधरनाथ जी ने 30 करोड़ साबर मन्त्रों की रचना की इन योगीयो के बाद अनन्त कोटि नाथ सिद्धों ने साबर मन्त्रों की रचना की यह साबर विद्या नाथ पंथ में गुरु शिष्य परम्परा से मौखिक रिवाज के आधार पर आगे बढ़ने लगी, इसलिए साबर मंत्र चाहे किसी भी प्रकार का क्यों ना हो उसका सम्बन्ध किसी ना किसी नाथ पंथी योगी से अवश्य होता है | अतः यह कहना गलत ना होगा कि साबर मंत्र नाथ सिद्धों की देन है |
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मंगलवार, 12 सितंबर 2017
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